तुलनात्मक साहित्य औपनिवेशिक राजनीति का शिकार हुआ

लखनऊ: 19 अगस्त, 2012। लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग द्वारा उच्च शिक्षा विभाग, उत्तर प्रदेश शासन की ‘उत्कृष्ट केन्द्र योजना’ के अन्तर्गत आयोजित दो दिवसीय शोध प्रविधि कार्यशाला के दूसरे दिन शोधार्थियों को पाठानुसंधान प्रक्रिया के अन्तर्गत वक्तव्य देते हुए पंजाब विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष प्रो0 जयप्रकाश ने कहा कि पाठानुसंधान पाठकों की भाषा वैज्ञानिक पद्धति से ही पाठ विचार कराती है। पाठ को सृजनात्मक रूप से पढ़ते हैं। पाठानुसंधान में रचनाकाल की बहुत आवश्यकता है इससे कविता का विषयवस्तु मिल जाती है। पाठ, भाषा और रूप दो बातों से मिलकर बना है।
    उन्होंने कहा कि समकालीन साहित्य पर शोधपरक यात्रा समाप्त हो रही है। जो व्यक्ति जीवित होता था उसके निधन के 50 वर्ष बाद ही उसकी रचना पर शोध कार्य होता था अब वह स्थिति विलुप्त हो रही है। अब नये से नये साहित्यकारों के साहित्य और रचना पर शोध कार्य कराये जा रहे हैं। ये आजीविका प्रदायी तो है लेकिन यह अध्यापकों और शोध छात्रों के लिए बेहतर भविष्य नहीं हो सकते। पूर्व में शोध प्राचीन ग्रन्थों पर होता था जो उपाधि के लिए नहीं निरूपाधि के लिए होता था। पहले का शोध पुराने ग्रन्थों के उद्धार के लिए ज्यादा हुआ करता था परन्तु आज स्थिति इसके विपरीत है। आज अगर शोध कार्य कराने हेतु पुराने ढंगों को अपनाया जाए तो शोध हेतु विषयों की कमी नहीं आयेगी।
    आज देश में हिन्दी की अनेकों पाण्डुलिपियां हैं जो जगह-जगह पाठकों की प्रतीक्षा कर रही हैं। पाठक उन तक पहुंचे और उन विषयों पर काम करें। उन्होंने कहा कि काशी हिन्दु विश्वविद्यालय में बिहारी सतसई में 713 दोहे हैं कहीं 716 दोहे हैं। बिहारी सतसई पर ठाकुर कवि ने एक टीका लिखा है- सतसईया वर्णनाथ टीका। उन्होंने कहा कि बिहारी सतसई की रचना उनकी पत्नी राधा ने लिखी थी, इसमें 1400 दोहे लिखे हैं, इसकी पाण्डुलिपि काशी नरेश के पुस्तकालय में ताले में बंद है।     700 दोहे शोधार्थियों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। स्वर्ण मंदिर के पुस्तकालय मंे सैकड़ों हिन्दी की पाण्डुलिपियां सुरक्षित हैं जो गुरूमुखी लिपि मंे ब्रज भाषा में हैं। ये सैकड़ों वर्षों से वहां पड़ी हैं जिन पर शोध कार्य नहीं हुए हैं। ऐसे तमाम विषय हैं जिन पर शोध कार्य किया जाना आवश्यक है परन्तु खेद का विषय है कि आज शोध निर्देशक व शोधार्थी आवृत्ति और पुनरावृत्ति से काम चला रहे हैं। प्रो0 जय प्रकाश ने पाण्डुलिपियों की प्राचीनता का आकलन करने के लिए, नई प्रयोगशालाओं का उपयोग करने पर जोर दिया। डेटिंग आदि कराकर, कृति के काल निर्धारण किया जा सकता है।
    राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के हिन्दी विभाग से आये प्रो0 हनुमानप्रसाद शुक्ल ने तुलनात्मक शोध प्रक्रिया पर अपनी बात रखते हुए कहा कि तुलनात्मक शोध प्रक्रिया इधर एक दो वर्षों से अनुशासन का स्वरूप ग्रहण कर लिया है। 1816-1854 के तुलनात्मक साहित्य की बात चर्चा में आई। इसे विवादों के तौर पर स्वीकार किया गया। आज तुलनात्मक साहित्य यूरोप से हटकर अमेरिका में केन्द्रित हो गया। यह बनी बनाई अवधारणा को सामने लाती है। इसके विकास क्रम पर दृष्टि डालें तो तुलनात्मक साहित्य औपनिवेशिक राजनीति का शिकार होता रहा है। यूरोपियन औपनिवेशवाद से उपजा तुलनात्मक साहित्य, आज अमेरिकी साम्राज्यवाद से ज्यादा प्रभावित है। उन्होंने कहा कि विज्ञान में बायोलाॅजी से माइक्रोबायोलाॅजी व बायोटेक्नोलाॅजी बना तो उसे समाज ने स्वीकार किया फिर हिन्दी से अगर कोई विषय बनता है तो उसे समाज क्यों नहीं स्वीकारता ? तुलनात्मक साहित्य, साहित्य की अध्ययन प्रविधि ही नहीं अपितु साहित्य को पढ़ने की सम्पूर्ण विधि है। इसके केन्द्र में मनुष्य है जो समाजोपयोगी है। वर्तमान समय में तुलनात्मक साहित्य एक अनुशासन के रूप में विकसित हुआ है। उन्होंने अनुवाद पर जोर देते हुए कहा कि बिना अनुवाद के तुलनात्मक साहित्य को पढ़ना बेमानी है। अनुवाद को तुलनात्मक साहित्य का औजार बनाईये। यह जरूरी नहीं कि बड़ा नाम ही अनुवाद करे तो ही बड़ा माना जायेगा। अगर सृजनात्मक अनुवाद किया जाये जिसमें मौलिकता हो, विचार हो तो भी अनुवाद बड़ा माना जायेगा। बिना अनुवाद के तुलनात्मक साहित्य को समझा और परखा नहीं जा सकता। तुलनात्मक साहित्य मूलतः अनुवाद अध्ययन है। इसमें अभी काम करने की सौ प्रतिशत गंुजाइश है। तुलनात्मक साहित्य में लेख तो लिखे गये हैं लेकिन पूर्ण सामग्री आज तक नहीं लिखी गयी यहां तक की अंग्रेजी में भी। उन्होंने कहा कि भारत के जितने भी भाषाविद हैं किसी ने भी तुलनात्मक साहित्य का सैद्धांतिक पक्ष नहीं लिखा है। इसमें प्रभाव की महत्वपूर्ण भूमिका है यह दो तरफा प्रक्रिया है। अगर साहित्य से संस्कृत को अलग कर दिया जाये तो साहित्य को कभी भी नहीं पढ़ा जा सकता है। किसान जीवन का अध्ययन हिन्दी में देखने को नहीं मिलता जो दुखद है।
    कार्यशाला के अंतिम सत्र में प्रतिभागी प्रशिक्षुओं को प्रायोगिक प्रशिक्षण दिया गया जिसके अंतर्गत संदर्भ ग्रंथ सूची, बिबिलियोग्राफी, परिशिष्ट तथा विषय सूची आदि बनाने से संबंधित प्रायोगिक कार्य कराया गया।
    कार्यशाला के समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुए पंजाब विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष प्रो0 जयप्रकाश ने कहा कि ब्रजभाषा ने हिन्दी को अन्तर प्रान्तीय चरित्र दिया है। हिन्दी कभी राष्ट्र भाषा नहीं होती अगर पूर्व में कवितायें ब्रजभाषा में नहीं लिखी गई होतीं। कश्मीर में ब्रज भाषा के बहुत से साहित्य थे। हिमाचल प्रदेश और पंजाब में जो रियासतें थीं उनमें ब्रज भाषा के कवि बैठते थे। कच्छ की ब्रजभाषा पाठशाला का आज भी निजी महत्व है। आज वही ब्रज भाषा से पूरित हिन्दी विश्व में अपना परचम फहरा रही है।
    समापन समारोह पर हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो0 सूर्यप्रसाद दीक्षित ने कहा कि भाषा, साहित्य और संस्कृति का रेखीयकरण अध्ययन नहीं होता। इसका अध्ययन करने के लिए अधिक से अधिक प्रश्नावली और साक्षात्कार प्रविधियों का प्रयोग किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि अपने मनोभावों को समझकर ही शोध के विषय का चयन करना चाहिए। साहित्य को अगर अच्छी तरह समझना हो तो किसी एक साहित्य को पढ़ना होगा ताकि उसकी प्रकृति और समुदाय को अच्छी तरह समझ जा सके। उन्होंने कहा कि शोध प्रबंध की भाषा तत्समबहुला होती है। उसमें मानक हिन्दी का प्रयोग करना वांछनीय है। शोध की भाषा भावोद्रेक नहीं होनी चाहिए। प्रो0 दीक्षित ने जोर देकर कहा कि यू0जी0सी0 के मानदण्डों के अनुरूप ही शोधार्थियों को शोध कराया जाए ताकि उन्हें भविष्य में किसी प्रकार की परेशानी का सामना न करना पड़े। मनुष्य के विकास का मुख्य स्रोत शोध है।
    कार्यक्रम का संचालन डा0 श्रुति व डा0 हेमांशु सेन ने किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन प्रो0 पवन अग्रवाल द्वारा किया गया। कार्यशाला में प्रो0 के0डी0 सिंह, डा0 रमेश चन्द्र त्रिपाठी, डा0 अलका पाण्डेय, डा0 परशुराम पाल, रविकान्त, डा0 ममता तिवारी, डा0 कृष्णा जी श्रीवास्तव, डा0 टी0पी0 राही व अन्य विभागीय शिक्षकगण, शोधार्थी व कर्मचारी मौजूद थे।

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