विज्ञान और हिन्दी के सामन्जस्य से ही आम व्यक्ति का विकास संभव

                                          
लखनऊ : 18 अगस्त, 2012। लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग ने उच्च शिक्षा विभाग, उत्तर प्रदेश शासन की ‘‘उत्कृष्ट केन्द्र योजना’’ के अंतर्गत दो दिवसीय ‘हिन्दी में विज्ञान लेखन’ कार्यशाला का उद्घाटन आज ए0पी0 सेन सभागार मंे हुआ।
    कार्यशाला का शुभारम्भ दीप प्रज्ज्वलित कर किया गया। अतिथियों का स्वागत हिन्दी विभाग की विभागाध्यक्ष प्रो0 कैलाश देवी सिंह ने पुष्पगुच्छ देकर किया। कार्यक्रम का संचालन डाॅ0 हेमांशु सेन ने किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन डाॅ0 रविकान्त ने किया।
    उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करते हुए लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो0 मनोज कुमार मिश्र ने कहा कि विश्वविद्यालयों के अधिकतर छात्र हिन्दी माध्यम से होते हैं, उनके लिए हिन्दी लेखन की बहुत आवश्यकता है। प्रो0 मिश्र ने कहा कि हिन्दी के विद्यार्थी हिन्दी में ही सोचते और समझते हैं अतः आवश्यकता इस बात की है कि उन छात्रों के लिए विज्ञान की पुस्तकें हिन्दी में लिखी जाएं। उन्होंने कहा कि विज्ञान ही हमारे देश को आगे ले जायेगा। ग्रामीण क्षेत्र के बहुतेरे ऐसे छात्र हैं जो अंग्रेजी से दूर भागते हैं जिन्हें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं है उनके लिए विज्ञान की पुस्तकों को हिन्दी में लिखा जाना चाहिए जो पढ़ने में रोचक हो और साथ ही ज्ञानपरक भी। विज्ञान और हिन्दी के सामन्जस्य से ही आम व्यक्ति भी विज्ञान को आसानी से समझ सकता है। प्रो0 मिश्र ने कहा कि विदेशों में विज्ञान को उनके मातृभाषा में पढ़ाया जाता है जबकि हिन्दुस्तान में ऐसा नहीं है तभी आज विज्ञान समाज की पहुंच से बाहर है। भाषा के विवाद के कारण ही आज विज्ञान का सम्पूर्ण विकास नहीं हो पा रहा है।
    कार्यशाला के मुख्य अतिथि, लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति पद्मश्री प्रो0 महेन्द्र सिंह सोढ़ा ने कहा कि स्वतंत्रता के 65 वर्षों बाद भी विज्ञान को हिन्दी मंे लिखने की चर्चा करना चिंताजनक है। सरकार ने इस ओर विशेष ध्यान दिया होता तो आज तस्वीर कुछ और होती। उन्होंने कहा कि  किसी लेखक के कलम को विज्ञान में हिन्दी लेखन कार्य हेतु सरकार ने नहीं रोका था फिर भी आज बाजार में विज्ञान की हिन्दी में लिखी किताबें प्रचुर मात्रा मंे उपलब्ध नहीं है। इसलिए दोष लेखक और सरकार दोनों का है। प्रो0 सोढ़ा ने कहा कि आज जरूरत इस बात की है कि स्कूल और कालेज स्तर से ही विज्ञान को हिन्दी में पढ़ाया जाय। परन्तु दुखद है कि आज स्कूल और कालेज दोनों ही स्तर पर विज्ञान को हिन्दी लेखन स्तर पर कार्य नहीं हुआ है। स्नातक स्तर पर तो विज्ञान की किताबें हिन्दी में मिलती हीं नहीं है जिससे अंग्रेजी में कमजोर छात्र बहुत पीछे रह जाते हैं। शोध तो पूरी तरह से अंग्रेजी में ही होता है जो सबसे बड़ी चुनौती है। आज आवश्यकता है कि जनसाधारण के लिए उन्हीं की भाषा में किताबें लिखी जायें ताकि विज्ञान लोकप्रिय हो सके। देश में लेखन परीक्षा को ध्यान मंे रखकर किया जाता है जबकि विषयानुसार लेखन कार्य कम हुआ है।
    विषय प्रवर्तन करते हुए हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो0 सूर्यप्रसाद दीक्षित ने कहा कि हिन्दी के समक्ष जो सबसे बड़ी चुनौती है वह है ज्ञान-विज्ञान का लेखन। आज विज्ञान और तकनीकी का युग है। सर्जनात्मक लेखन का महत्व अलग है। हमारे अंदर ज्ञान की कमी नहीं है, संसाधनों की भी कमी नहीं है कमी है तो इच्छाशक्ति की। उन्हांेने कहा कि अंग्रेजी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें ज्ञान-विज्ञान की नवीनतम सामग्री अपडेट होती रहती है जबकि हिन्दी में नहीं। प्रो0 दीक्षित ने कहा कि आज गरीब तबके या मध्यम वर्ग के बहुत से बच्चे जो अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा नहीं ग्रहण कर पाते ऐसा नहीं है कि उनमें ज्ञान की कमी है, सोचने की क्षमता नहीं है कमी है तो सिर्फ माध्यम की। वे विज्ञान की मूल बातों को अंग्रेजी में नहीं समझ पाते हैं, इसके लिए आवश्यकता है कि विज्ञान को अपनी भाषा मंे सीखें जिसके लिए हिन्दी में विज्ञान लेखन आवश्यक है।
    कार्यशाला के प्रथम सत्र में प्रतिभागियों को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक डाॅ0 जयेन्द्र कुमार चैधरी ने कहा कि विज्ञान कठिन और अरूचिकर विषय है इसे अपने भाषा में ही लिखने और पढ़ने में रूचि पैदा होगी। आज देश के 90 प्रतिशत लोग हिन्दी बोल और समझ सकते हैं इसलिए अगर विज्ञान को हिन्दी में लिखा जाये तो कोई परेशानी नहीं है। डाॅ0 चैधरी ने कहा कि वैज्ञानिकों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे अनुसंधान आम जनमानस के लिए कर रहे हैं इसलिए शोध को हिन्दी में लिखें ताकि उसके बारे में सभी लोग समझ सकें। उन्होंने कहा कि चीन और जापान आदि देशों में उनके सभी शोध पत्र उनकी मातृ भाषा में छपते हैं, हमारे यहां उनके अनुवाद पर हजारों रूपये खर्च करने पड़ते हैं परन्तु हमारे देश में विपरीत स्थिति है। यहां शोध पत्र को अंग्रेजी में छापा जाता है जिसका संबंध आम आदमी से होता ही नहीं है। उन्होंने कहा कि हम शोध किसानों के लिए करते हैं अगर इसको अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित कराते हैं तो किसान कैसे पढ़ पायेगा और कैसे अपने फसल की सुरक्षा कर पायेगा। सबसे अहम बात यह है कि अगर वैज्ञानिक शोध को अंग्रेजी में लिखकर किसी अच्छे जर्नल में न छपवाये तो उसके आजीविका पर संकट आ जायेगा अतः आवश्यकता है कि इस ओछी मानसिकता से बाहर आकर शोध को हिन्दी में लिखा जाये और उसी भाषा में प्रकाशित किया जाये।
    सी0डी0आर0आई0 के वैज्ञानिक डाॅ0 प्रदीप श्रीवास्तव ने अपने सम्बोधन में कहा कि भाषा महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है ज्ञान। यदि किसी व्यक्ति के पास ज्ञान है तो वो किसी भी जगह जा सकते हैं। डाॅ0 श्रीवास्तव ने जैव विविधिता को कार्टूनों द्वारा समझाया ताकि आम व्यक्ति उसके उपयोग को अच्छी तरह समझ सके। हमारे देश में 16 ऐसे डायवर्सिटी जोन हैं जहां अलग-अलग मौसम हैं।
    डाॅ0 महेन्द्र प्रताप सिंह ने हिन्दी मंे पर्यावरण लेखन पर बताया कि पर्यावरण को बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है। किसी एक विभाग या संस्था पर इसे नहीं छोड़ा जा सकता है। देश के सभी व्यक्तियों को मिलकर इस पर कार्य करना चाहिए। कोई दैवीय शक्ति स्वयं आकर इसका निदान नहीं करेगी। डाॅ0 सिंह ने कहा कि पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए पाॅलीथिन आदि का प्रयोग बंद कर देना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिबद्ध होकर पेड़ लगाना चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा संख्या में वृक्ष हों जिससे पर्यावरण की सुरक्षा की जा सके। प्राचीन ग्रंथों रामचरितमानस, रामायण आदि ग्रंथों में भी वृक्षों का उल्लेख है।

    कार्यशाला में डाॅ0 आनन्द कुमार अखिला ने स्वास्थ्य और प्रसन्नता विषय पर बताते हुए बहुत से ऐसे पौधों, मसालों आदि के विषय में बताया जिनका प्रयोग सामान्य जीवन में हम करते अवश्य हैं किन्तु उनके उपयोगी तथ्यों की जानकारी नहीं होती। तुलसी, हल्दी, दालचीनी आदि के जीवन में बहुत से प्रयोग हैं। उन्होंने कहा कि विज्ञान हमारी भाषा से काफी दूर है। विज्ञान को आम जनमानस के करीब लाने के लिए उसे मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत करना होगा।

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